अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व या केवल प्रतीकवाद? हिंदू समुदाय फिर हाशिए पर
- राजनीति
- 07 Aug,2025

पंजाब में 'अल्पसंख्यक सप्ताह' की शुरुआत, हिंदू नेतृत्व की गैरमौजूदगी पर उठे सवाल
लाहौर 7अगस्त अली इमरान चठ्ठा
पंजाब सरकार ने बुधवार को पहली बार ‘अल्पसंख्यक सप्ताह’ की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता, धर्मों के बीच सद्भाव, और पाकिस्तानी सेना के साथ एकजुटता को प्रदर्शित करना है। लेकिन इस आयोजन में हिंदू समुदाय के नेताओं की गैरमौजूदगी पर आलोचना शुरू हो गई है, जिससे समावेशन और वास्तविक प्रतिनिधित्व को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं।
इस सप्ताह की शुरुआत लाहौर स्थित कैथेड्रल चर्च ऑफ़ रेज़रेक्शन में एक औपचारिक समारोह के साथ हुई, जिसमें अल्पसंख्यक मामलों के प्रांतीय मंत्री सरदार रमेश सिंह अरोड़ा, मानवाधिकार सचिव फरीद अहमद तारड़, सांसद, विदेशी राजनयिक, नागरिक समाज के कार्यकर्ता और मुख्य रूप से ईसाई और सिख धर्मगुरु शामिल हुए।
समारोह में एक वृक्षारोपण कार्यक्रम आयोजित किया गया और बिशप नदीम कमरान ने देश में शांति और एकता के लिए विशेष प्रार्थना की। इस दौरान "पाकिस्तानी सेना जिंदाबाद" जैसे नारे भी लगाए गए और ऑपरेशन बिनयान मर्सूस में सेना की सफलता को सराहा गया।
धार्मिक स्थलों की यात्रा लेकिन प्रतिनिधित्व अधूरा
इस कार्यक्रम के बाद एक अंतरधार्मिक कारवां ने कृष्णा मंदिर, गुरुद्वारा डेरा साहिब, बादशाही मस्जिद, मीनार-ए-पाकिस्तान और अल्लामा इक़बाल की मजार जैसी ऐतिहासिक और धार्मिक जगहों का दौरा किया, जहाँ प्रार्थनाएं और वृक्षारोपण किए गए।
हालांकि कृष्णा मंदिर को यात्रा में शामिल किया गया, कोई भी प्रमुख हिंदू नेता मंच पर नहीं बुलाया गया, न ही उन्हें बोलने का अवसर दिया गया। इससे सामाजिक कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार समूहों ने कार्यक्रम की गंभीर आलोचना की।
प्रतीकात्मक आयोजन, लेकिन असल मुद्दे छूटे
कई पर्यवेक्षकों ने इसे राज्य प्रायोजित प्रदर्शन करार दिया, जिसमें वास्तविक संवाद और नीति पर चर्चा नहीं हुई। वे मुद्दे जो अल्पसंख्यकों के लिए अहम हैं —
राजनीतिक प्रतिनिधित्व
धार्मिक स्थलों की सुरक्षा
कानूनी और सामाजिक भेदभाव
आर्थिक अवसरों की कमी
उन पर कोई चर्चा नहीं हुई।
समावेश की मांग
इस आयोजन में सोनिया एशर, बाबा फैब्यूलस, शकीला आर्थर, इमैनुएल अथर और तारीक गिल जैसे ईसाई सांसदों और सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्यों ने हिस्सा लिया। अल्पसंख्यक युवाओं की भागीदारी तो दिखी, लेकिन वह भी ज़्यादातर औपचारिक ही रही।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने मांग की है कि भविष्य के ऐसे कार्यक्रमों में हिंदू, बहाई, कलाश और अन्य उपेक्षित समुदायों को भी पूरी तरह शामिल किया जाए। उनका कहना है कि सिर्फ़ दिखावे से नहीं, बल्कि नीति बदलाव और बराबर के प्रतिनिधित्व से ही असली धर्मनिरपेक्षता आएगी।
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